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congress को सबक़ लेनी चाहिए

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कांग्रेस को सीख लेनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस सीख लेगी, इसमें संदेह है. क्योंकि उत्तर प्रदेश में इतनी करारी हार के बाद भी उत्तराखंड में कांग्रेस ने राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया. उत्तराखंड की राजनीति में हरीश रावत महत्वपूर्ण नाम है. वहां कांग्रेस को ज़िंदा रखने में हरीश रावत का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पूर्व में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला, लेकिन जब मुख्यमंत्री बनाने का व़क्तआया तो नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया गया. इस बार कांग्रेस ने दो ग़लतियां की. पहली ग़लती मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान किए बिना चुनाव लड़ा और जो चुनाव कांग्रेस की झोली में था उसे कांग्रेस ने ख़ुद भारतीय जनता पार्टी के पाले में पटक दिया. कांग्रेस के नेताओं की आपसी रंजिश में भुवनचंद्र खंडूरी जी को कांग्रेस के ख़िला़फ माहौल बनाने का अवसर दे दिया और उन्होंने हाशिये पर पड़ी भाजपा को बराबरी की टक्कर पर लाकर खड़ा कर दिया. खंडूरी जी भले ही अपना चुनाव नहीं जीत पाए, लेकिन उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को उत्तराखंड में पुनर्जीवित कर दिया. कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी से स़िर्फ एक सीट ज़्यादा जीत पाई. जब मुख्यमंत्री पद की घोषणा विधायक दल में होनी थी, तो ग़ुलाम नबी आज़ाद ने एक प्रस्ताव रखा कि जिसे कांग्रेस हाईकमान यानी सोनिया गांधी चाहेंगी विधायक  उसे मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेंगे. सोनिया गांधी के यहां ग़ुलाम नबी आज़ाद ने एक साथ विजय बहुगुणा और हरीश रावत को बुला लिया. इससेपहले कांग्रेस पार्टी की तऱफ से यह घोषणा की गई थी कि उत्तराखंड में किसी सांसद को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा. विधायकों के बीच तीन नाम चले हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य और इंदिरा हृदयेश अचानक दिल्ली से घोषणा हुई कि विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री होंगे.


ग़ुलाम नबी आज़ाद ने सबसे कहना शुरू किया कि स्वयं हरीश रावत ने विजय बहुगुणा का नाम प्रस्तावित किया है. अगर ग़ुलाम नबी आज़ाद के स्तर का आदमी झूठ बोले तो क्या कहा जाए. हरीश रावत ने ऐसा कुछ नहीं कहा. इसके पीछे की कहानी बहुत ही मज़ेदार है. एक बड़ा औद्योगिक घराना है, जो इंश्योरेंस में भी बड़ा काम करता है, उसने उत्तराखंड में विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पांच सौ करोड़ रुपये का दांव लगाया. उसने उन सब लोगों को, जो नेतृत्व का फैसला करते हैं, को जिसका जितना हिस्सा होता है, उतना पहुंचाया. जो लोग कांग्रेस को जानते हैं और अंदरूनी ख़बर रखते हैं, उन्होंने हमें बताया कि विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला इसलिए हुआ है, क्योंकि एक ग्रुप उत्तराखंड में दस हज़ार मेगावॉट का पॉवर प्रोजेक्ट लगाना चाहता है और सौदा यही हुआ है कि विजय बहुगुणा उस पॉवर प्रोजेक्ट को मंज़ूरी देंगे. वह इसके बदले में विजय बहुगुणा को किसी भी तरह से मुख्यमंत्री बनवाएगा. अन्यथा यह कैसे होता कि विजय बहुगुणा अभी मुख्यमंत्री बने भी नहीं थे, बहुमत भी उन्होंने साबित नहीं किया था और उनका बयान आ गया कि उत्तराखंड में बिजली उनकी प्राथमिकता है. बड़े बिजली के काऱखानें उत्तराखंड में लगने चाहिए. हम उस बिजनेस हाउस का नाम खोल सकते हैं, अगर हमसे कांग्रेस के निर्णायक लोग पूछें या स्वयं विजय बहुगुणा पूछें, क्योंकि पता इससे चल जाएगा कि पावर प्रोजेक्ट को मंज़ूर करने में प्राथमिकता दी जाती है या नहीं. हमारा कहना है कि उस ग्रुप को प्राथमिकता दी जाएगी.


हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के ़फैसले का असर उत्तराखंड में कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है. विधायकों की बड़ी संख्या विजय बहुगुणा के ख़िला़फ है. मोटे तौर पर माना जा रहा है कि 17 से 21 विधायक विजय बहुगुणा के ख़िला़फ हैं. यह कांग्रेस की कैसी निर्णय प्रक्रिया है, जिसमें अगर 21 विधायक किसी व्यक्ति के ख़िला़फ हों और उसे ही मुख्यमंत्री बना दिया जाए. इससे पहले उत्तर प्रदेश में कार्यकर्ताओं को अनदेखा किया गया ख़ासकर उन कार्यकर्ताओं को, जिन्होंने पार्टी बनाने में जी जान लगा दी और जिन लोगों की पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस के प्रति आस्था एवं व़फादारी थी. उन सारे लोगों को कांग्रेस ने पहले क़दम के तौर पर दरकिनार कर दिया और दूसरी पार्टियों के लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया. संगठन में भी ऐसे लोगों को कांग्रेस ने महत्वपूर्ण स्थानों पर रखा, जिन्होंने संगठन बनाने में कोई भूमिका नहीं निभाई थी. नतीजे के तौर पर कांग्रेस पार्टी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कांग्रेस के ही ख़िला़फ काम करने लगा.
एक बड़ा औद्योगिक घराना है, जो इंश्योरेंस में भी बड़ा काम करता है, उसने उत्तराखंड में विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पांच सौ करोड़ रुपये का दांव लगाया. उसने उन सब लोगों को, जो नेतृत्व का फैसला करते हैं, को जिसका जितना हिस्सा होता है, उतना पहुंचाया. जो लोग कांग्रेस को जानते हैं और अंदरूनी ख़बर रखते हैं, उन्होंने हमें बताया कि विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला इसलिए हुआ है, क्योंकि एक ग्रुप उत्तराखंड में दस हज़ार मेगावॉट का पॉवर प्रोजेक्ट लगाना चाहता है और सौदा यही हुआ है कि विजय बहुगुणा उस पॉवर प्रोजेक्ट को मंज़ूरी देंगे. वह इसके बदले में विजय बहुगुणा को किसी भी तरह से मुख्यमंत्री बनवाएगा.


बिहार में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में हर सीट का सर्वे कराया, उम्मीदवार छांटे और नौजवानों को टिकट देने का आश्वासन दिया. नौजवान वहां उत्साह में आए और इसके बाद जब टिकटें बटीं, उसमें नौजवानों की कोई भागीदारी नहीं थी. टिकट उन्हें दिए गए, जो नौजवान के नाम पर बुज़ुर्ग थे. नतीजे के तौर पर 200 करोड़ रुपये ख़र्च करने के बाद भी कांग्रेस के हाथ में सीटें नहीं आईं. दूसरी तऱफ उत्तर प्रदेश में हर सीट का सर्वे हुआ, कौन उम्मीदवार जीत सकता है, इसकी सूची बनी. आख़िर में जब टिकट बांटने का समय आया तो दूसरी पार्टियों से उम्मीदवार तलाशे गए. कांग्रेस ने यह रणनीति बनाई कि जो उम्मीदवार जीत सकता हो और जिसे पिछले चुनाव में दस, पंद्रह, बीस हज़ार वोट मिले हों, उसे अपना उम्मीदवार बना लो. कांग्रेस भूल गई कि दूसरी पार्टी में जिस उम्मीदवार को दस, पंद्रह, बीस हज़ार वोट मिले थे, वे वोट उस पार्टी के थे, उस व्यक्ति के नहीं थे. इसलिए जब वह कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा तो उसे 3000, 5000, 7000, 8000 वोट मिले. दरअसल, कांग्रेस में यह राजनीतिक अपरिपक्वता की पराकाष्ठा थी. जो नई टीम कांग्रेस की रणनीति बना रही थी, उसने तीन बड़े व्यक्तित्व बनाने वाले विशेषज्ञों को बुलाया और उनके साथ बातचीत करके तय किया कि चुनाव में राहुल गांधी का पोश्चर किस तरह का हो. बैठक में तय हुआ कि जिस तरह दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन एंग्री यंगमैन के रूप में सामने आए और सारे देश के लोगों ने उनकी फिल्म को हिट कर दिया, अगर उसी तरह राहुल गांधी एंग्री यंगमैन की तरह दिखेंगे तो नौजवान उनके साथ खड़ा हो जाएगा, क्योंकि नौजवान यह मानेगा कि उनकी समस्याओं को ख़त्म करने वाला एक फैंटम सामने आ गया है. राहुल गांधी के उस पोश्चर को न वहां उपस्थित भीड़ ने पसंद किया और न उन्होंने, जिन्होंने टेलीविजन देखकर राहुल गांधी को लेकर राय बनाई.


कांग्रेस यह भूल गई कि असली ज़िंदगी और सिनेमा की ज़िंदगी में फर्क़ होता है. राहुल गांधी जितना ज़्यादा एंग्री यंगमैन का पोश्चर ले रहे थे, वोटर उतना ही उनसे दूर जा रहा था. इसके पीछे एक दूसरा कारण भी है. कारण यह कि राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में किसी सभा में यह नहीं कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आएगी तो वह क्या करेगी, लोगों को क्या देगी, लोगों की किन समस्याओं को दूर करेगी, उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं. इसकी जगह राहुल गांधी यह बोलते रहे कि मैंने बुंदेलखंड के लिए पैसा दिया, मैंने बुनकरों के क़र्ज़ मा़फ किए, मैंने ये किया और वो किया. उन्होंने कांग्रेस का भी नाम नहीं लिया. नतीजे के तौर पर राहुल गांधी को लेकर संपूर्ण प्रदेश में एक अविश्वास का वातावरण बन गया. राहुल गांधी के सिपहसलारों की रणनीति ने कांग्रेस को जितना संकुचित किया, उससे ज़्यादा संकुचित कुछ मंत्रियों के बयानों ने किया. ये सारी बातें आज भी कांग्रेस समझ नहीं पाई. कांग्रेस के टिकट वितरण में एक और सच्चाई हमें पता चली. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कनिष्क सिंह द्वारा भेजी लिस्ट में जिन बारह लोगों के नाम काटकर नए नाम लिखे, संयोग से वे सभी चुनाव जीत गए. अगर इनमें से चार भी चुनाव हार जाते तो अब तक दिग्विजय सिंह की गर्दन राजनीतिक रूप से कट चुकी होती.


अब कांग्रेस को जहां लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को पुनर्गठित करना चाहिए, वहीं वह अपनी पार्टी के सांसदों को सज़ा देने का मन बना रही है. कांग्रेस नेताओं का यह मानना है कि संजय सिंह, बीनू पांडे, कमल किशोर कमांडर, बेनी प्रसाद वर्मा, पीएल पुनिया, सलीम शेरवानी और राज बब्बर बहुत दिनों तक कांग्रेस के साथ नहीं रहेंगे. जब मैंने कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से सवाल पूछा कि अगर वे कांग्रेस में नहीं रहेंगे तो कहां जाएंगे. इस पर मुझे बताया गया कि संजय सिंह, सलीम शेरवानी, राज बब्बर और पीएल पुनिया समाजवादी पार्टी में वापस जा सकते हैं. राज बब्बर के नाम पर उनका कहना था कि राज बब्बर कहेंगे कि मेरी तो अमर सिंह से लड़ाई थी, मुलायम सिंह से कभी लड़ाई रही ही नहीं थी. अमर सिंह से वैसी ही लड़ाई थी, जैसी आज़म खान की थी. तो मैं अपनी पुरानी पार्टी में वापस जाना चाहता हूं और मुलायम सिंह उन्हें पार्टी में वापस ले भी सकते हैं. बेनी प्रसाद वर्मा बहुजन समाज पार्टी में जा सकते हैं. इस तरह के क़यास लगाने का मतलब कमज़ोर सेना को और कमज़ोर करना है. ये क़यास कांग्रेस के आधिकारिक लोग लगा रहे हैं. इसलिए ऐसा लगता है, कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की हार से कोई सबक़ नहीं सीखा. अगर मैं कहूं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने मेनेजेरियल इनएफिशियेंसी का भरपूर नज़ारा दिखाया तो यह ग़लत नहीं होगा. किस प्रत्याशी को कितना पैसा दिया जाना है, इसका फैसला राहुल गांधी के दोस्त और उनके सखा उनके आंख, नाक, कान कनिष्क सिंह ने किया. एबीसीडी चार सूचियां बनाई गईं. किसको कहां कितना पैसा जाना है, इसका फैसला किया गया. साथ ही मीडिया को पैसे देने का भी फैसला किया, जिसमें मीडिया चेयरमैन की राय भी शामिल थी.किस मीडिया अख़बार और टेलीविज़न को कितना पैसा दिया जाना है, यह भी तय किया गया. शर्त एक ही थी कि राहुल गांधी का स़िर्फ चेहरा दिखाना है, भीड़ नहीं दिखानी है. इसलिए पूरे चुनाव के दौरान राहुल गांधी की किसी भी सभा में आई भी़ड को नहीं दिखाया गया.


जितनी कांग्रेस ने सीख न लेने की शपथ ली है, उतनी ही सीख न लेने की शपथ सरकार ने भी ली है. 14 मार्च की शाम से या कहें कि देर शाम से एक खबर चलनी शुरू हो गई कि देश के रेलमंत्री ने इस्ती़फा दे दिया. पूरा मीडिया 15 मार्च की सुबह 10 बजे तक इस खबर को चलाता रहा कि रेलमंत्री ने इस्ती़फा दे दिया, प्रधानमंत्री ने इस्ती़फा स्वीकार कर लिया है और नए रेलमंत्री मुकुल राय बनेंगे. हद तो तब हो गई, जब 15 मार्च के अ़खबारों में भी यह खबर छप गई कि रेलमंत्री ने इस्ती़फा दे दिया. अचानक 15 मार्च को सुबह सवा दस बजे यह खबर आई कि दिनेश त्रिवेदी ने कहा है कि उन्होंने इस्ती़फा नहीं दिया. चैनलों पर यह चलने लगा कि इस्ती़फे पर सस्पेंस है. अभी उन्होंने इस्ती़फा नहीं दिया है. वह वहां जाकर रेलमंत्री के नाते जवाब देंगे. यहीं पर लगता है कि सरकार ने कोई सीख नहीं ली. हर चैनल इस्ती़फा दिखा रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय और भारत सरकार के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर और प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो दोनों ने इस खबर का खंडन नहीं किया. 100 करोड़ लोगों को प्रधानमंत्री कार्यालय और देश के प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो ने रात 9 बजे से सुबह 10 बजे तक भ्रम में रखा और तरह-तरह के अ़फवाहों को चलने दिया. इतनी बड़ी चूक भारत सरकार का प्रधानमंत्री कार्यालय करे, भरोसा नहीं होता, लेकिन ऐसा हुआ. प्रधानमंत्री कार्यालय में मीडिया सलाहकार के रूप में हिंदी के पत्रकार पंकज पचौरी पहुंच गए हैं. पंकज पचौरी किस चीज़ में व्यस्त थे, यह तो वह जानें. लेकिन उन्होंने भी अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया. उन्होंने भी जानबूझकर इस अ़फवाह को फैलने दिया. वह चाहते तो हर चैनल को फोन करके कहते कि नहीं यह खबर ग़लत है.


दिनेश त्रिवेदी ने इस्ती़फा नहीं दिया और न उनका इस्ती़फा प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया. वह प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस्ती़फा स्वीकार कर लिया यह खबर एनडीटीवी पर चली, जहां वह पहले काम करते थे. लेकिन उन्होंने इसका खंडन नहीं किया. इससे पता चलता है कि ग़ैर ज़िम्मेदार लोग सरकार चला रहे हैं, चाहे अ़फसर हों या सरकार के मंत्री. दूसरी तऱफ ऐसा लगता है कि देश ट्विटर पर चल रहा है. प्रधानमंत्री के अलावा हर मंत्री ट्विटर पर कोई न कोई बयान दे रहा है. विपक्ष में सुषमा स्वराज हों, लालकृष्ण आडवाणी हों, अरुण जेटली हों, सब ट्विटर पर बयान दे रहे हैं. कोई भी अ़खबार या चैनल पर बयान नहीं दे रहा है. मज़े की बात यह है कि इस कमी को अपनी ग़लती मानने को भी कोई तैयार नहीं है. 15 तारी़ख की सुबह भारत सरकार के एक केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कई सारे लोगों को एक एसएमएस किया. जिस एसएमएस में उन्होंने लिखा-टू हावर्ड वन ऑक्सफोर्ड मेड यूपीए ऑक्वर्ड एंड कांग्रेस बैकवर्ड.


जयराम रमेश अगर लोगों को यह मैसेज देते हैं और यह समझते हैं कि यह मैसेज आउट नहीं होगा तो यह भी उनकी बुद्धि की बलिहारी होगी. इसलिए मैं कह रहा हूं कि यह सरकार ग़ैर ज़िम्मेदारी से चल रही है. तीसरी तऱफ सबसे बड़े दल के नाते कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह यूपीए को ठीक चलाए, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने गठबंधन को भी ठीक से न चलाने का प्रण ले रखा है. यूपीए की कोई कोर्डिनेशन कमेटी नहीं है, यूपीए में नेता तभी मिलते हैं, जब या तो सोनिया गांधी खाने पर बुलाएं या मनमोहन सिंह. इसमें भी स़िर्फ खाना होता है, बातें नहीं होतीं. होना यह चाहिए कि हर पार्टी के एक नेता को लेकर एक कोर्डिनेशन कमेटी होती और यह कमेटी उठने वालों सवालों को और वो सवाल जो यूपीए को परेशान कर सकते हैं, उस पर एक राय बनाती. लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं कर रही. इतना ही नहीं, उसका संवाद न ममता बनर्जी से है, न मुलायम सिंह यादव से, और न ही मायावती और करुणानिधि से. इन चार में दो यूपीए के औपचारिक सदस्य हैं और दो यूपीए को समर्थन दे रहे हैं, लेकिन कांग्रेस किसी से कोई बात नहीं कर रही है. नतीजे के तौर पर उसे बाज़ीगरी करने की ज़रूरत पड़ने लगी. जब उसे डर लगा कि ममता बनर्जी उसे परेशान करेंगी और सदन में होने वाली वोटिंग में साथ नहीं देंगी, तो फौरन उन्होंने मुलायम सिंह से समर्थन मांग लिया. सारे देश में गठबंधन का आधार और गठबंधन के परिणाम तार-तार होते दिख रहे हैं. ऐसा लगता है कि जैसे आंतरिक अंतर्विरोध इस तेज़ी से बढ़ रहा है कि न केवल पार्टी, बल्कि पार्टी के सारे नेता, न केवल सरकार, बल्कि सरकार के सारे मंत्री और यूपीए जो एक बड़ा गठबंधन है और देश में सरकार चला रहा है. इस सारे मेकेनिज्म के पीछे न कोई विजन है और न ही किसी समस्या का समाधान करने का मेकेनिज्म. ऐसा लगता है कि हर चीज़ अपने आप चल रही है. 


न यह चिंता है कि कोई समस्या पैदा होगी तो हम क्या करेंगे और न ही यह चिंता कि देश में अगर बाहरी खतरा दिखाई पड़े तो क्या करेंगे. कुल मिलाकर सरकार एक अजीब स्थिति में खड़ी दिखाई दे रही है. विपक्ष की स्थिति भी कुछ इसी तरह की है. विपक्ष के पास न नेता है, न विपक्ष के पास समझ है, न विपक्ष कांग्रेस को, सत्ता को उसकी कमियां दिखा पाने में पहल कर रहा है. लोकतंत्र के दोनों अंग सत्ता पक्ष और विपक्ष लगभग पंगु से दिखाई दे रहे हैं. आ़खिर में एक कहावत याद आती है-जैसा राजा वैसी प्रजा. जब राजा ऐसा है, सत्ता पक्ष ऐसा है, विपक्ष ऐसा है, तो मीडिया कैसा होगा. मीडिया ने भी दिनेश त्रिवेदी के इस्ती़फे की खबर को उनसे पुष्टि किए बिना चला दिया. जो लोग दिनेश त्रिवेदी के साथ रोज़ चाय पीते थे, उन्होंने भी दिनेश त्रिवेदी से नहीं पूछा कि आपने इस्ती़फा दिया है या नहीं. लगभग 12 घंटे से ज़्यादा समय तक पूरा देश इस भ्रम में रहा कि रेलमंत्री ने इस्ती़फा दे दिया. जब इस खबर को दोबारा चलाया कि दिनेश त्रिवेदी ने इस्ती़फा नहीं दिया है, तो इस ग़लती के लिए भी किसी ने जनता से मा़फी नहीं मांगी कि हमने आपको 12 घंटे तक ग़लत जानकारी दी. शायद मा़फी मांगने की ज़रूरत अब है नहीं, क्योंकि कोई भी अपनी ज़िम्मेदारी लेना ही नहीं चाहता. हरेक को लगता है कि वह जो कहेगा, जो करेगा लोग उस पर सवाल नहीं उठाएंगे. पर वे यह भूल गए कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनके हर प्रेडिक्शन को उत्तर प्रदेश की जनता ने ग़लत साबित कर दिया. यह भी भूल गए कि लोग अब मीडिया के बड़े पत्रकारों को जोकर की तरह ट्रीट करने लगे हैं. 


अपने मनोरंजन की खातिर वे टेलीविजन खोलते हैं, लेकिन उस पर भरोसा नहीं करते. यह स्थिति देश और देश के लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है. फिर भी यह अपेक्षा करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और नए नेता के रूप में उभरे नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव देश में लोकतंत्र के लिए पैदा होने वाली समस्याओं पर, लोकतांत्रिक व्यवहार की परेशानियों पर, जल्दी ही बैठकर विचार करेंगे. अगर वे विचार नहीं करेंगे, तो फिर लोगों के मन में दरक रही और टूट रही आशा को नए सिरे से संवारने का मौका भी राजनीतिक दलों के हाथों से छूट जाएगा.
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