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देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन

देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन
क्या यही वो जनतंत्र है जिसके लिए इन्होने और इनके जैसे जाने कितने औरों ने अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी?



बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगांव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया, वे वहां से बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में आ बसे थे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का भी परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूंकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता श्री महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र प्रसाद जी के चाचा श्री जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। जगदेव सहाय जी की अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।


उनके चाचा के चूंकि कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भांति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।


बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते, तो मां को भी जगा लिया करते और फिर उन्हें सोने नहीं देते। अतः मां भी उन्हें प्रभाती सुनाती, रामायण और महाभारत की कहानियां और भजन, कीर्तन आदि सुनातीं।


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